Lord Mahavira Chaturmas Khahani | भगवान महावीर चातुर्मास खहानी कोल्लाग सन्निवेश से प्रस्थान कर भगवान मोराक सन्निवेश पधारे। वहाँ के आश्रम का कुलपति महाराज सिद्धार्थ का मित्र था । उसने महावीर का स्वागत किया और वहाँ ठहरने की प्रार्थना करने लगा। महावीर ने वहाँ एक रात का निवास किया और दूसरे दिन प्रस्थान के लिए उद्यत हुए तो कुलपति ने उनसे वहाँ चातुर्मास काल में ठहरने का अनुरोध किया। भगवान कुछ समय तक आस-पास के गाँवों में घूमकर पुन: वर्षावास के लिए उसी आश्रम में आ गये और एक कुटी में रहने लगे। महावीर के हृदय में प्राणिमात्र के लिए दया और मैत्री भावना थी। अकाल के प्रभाव से घास आदि के अभाव में गाएँ आश्रम की कुटियों तक आकर कुटी का तृण चरने लगतीं । अन्य परिव्राजक तो उन्हें भगा देते, पर महावीर निस्पृहभाव से ध्यान में खड़े रहते। उनके मन में न तो आश्रम व कुलपति के प्रति राग था, न गायों के प्रति द्वेष। वे इन बातों से विरक्त दिन-रात ध्यान में निमग्न रहते। कुछ तापसों ने कुलपति से महावीर के इस आचरण की शिकायत की। कुलपति ने महावीर को मधुर उपालंभ देते हुए कहा - कुमार, आप निरन्तर ध्यानमग्न रहते हैं...
ains trace their history through twenty-four tirthankara and revere Rishabhanatha as the first tirthankara, The two main sects of Jainism, the Digambara and the Shvetaambar