Skip to main content

Svetambara and Digambara traditions (Thirthankar way of tradition) Rishabhdev Part 2



 श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के अतिशयों में संख्या समान होने पर भी निम्नलिखित अन्तर है: श्वेताम्बर ग्रन्थ समवायांग में तीर्थङ्करों के आहार-नीहार को चर्मचक्षु द्वारा अदृश्य-प्रच्छन्न माना इसके स्थान पर दिगम्बर परम्परा में स्थूल आहार का अभाव और नीहार नहीं होना, इस तरह दाना अला अतिशय मान्य किये हैं।

(There is the following difference between the extremes of the Svetambara and Digambara tradition, even though the number is the same: In the Svetambara book Samvayang, the diet of the Tirthankaras is considered to be invisible-disguised by the skin eye).


समवायाँग के छठे अतिशय से ग्यारहवें तक अर्थात् आकाशगत चक्र से अशोक चक्र तक के न दिगम्बर परम्परा में नहीं हैं। इनके स्थान पर निर्मल दिशा, स्वच्छ आकाश, चरण के नीचे स्वर्ण-कमल आकाश में जयजयकार, जीवों के लिए आनन्ददायक, आकाश में धर्मचक्र का चलना व अष्ट मंगल, ये 7 अतिशय माने गये हैं।

(From the sixth Atishaya to the eleventh of the Samvayang, i.e. from the Akashagat Chakra to the Ashoka Chakra, there are no Digambaras in the tradition. In place of these, pure direction, clear sky, golden-lotus under the feet, chanting in the sky, pleasurable for the living beings, movement of Dharmachakra in the sky and eight auspiciousness, these 7 are considered very auspicious.)

शरीर के सात अतिशयः-
  • स्वेद रहित शरीर
  • अतिशय रूप,
  • प्रथम संहनन,
  • प्रथम संस्थान,
  • 1008 लक्षण,
  • अनन्त बल और
  • हित-प्रिय वचन-जो दिगम्बर परम्परा में मान्य हैं, पर समवायांग में नहीं हैं
समवायांग के तेजो भामण्डल के स्थान पर दिगम्बर परम्परा में केवली अवस्था का चतुर्मुख अतिशय माना है और समवायाँग के बहुसमरणीय भूमि-भाग के स्थान पर पृथ्वी की उज्ज्वलता और शस्य- श्यामलता- ये दो अतिशय माने गये हैं।
(In place of Samwayang's Tejo Bhamandal, in Digambar tradition, Keoli state's Chaturmukh is considered to be extreme and instead of Samwayang's multi-commemorable land-part, the earth's brightness and crop-blackness - these two are considered to be extreme.)

केवलज्ञान के अतिशयों में समवायांग द्वारा वर्णित, अन्य तीर्थ के वादियों का आकर वन्दन करना और बाद में निरुत्तर होना, इन दो अतिशयों के स्थान पर दिगम्बर परम्परा में एक ही अतिशय, सर्वविद्येश्वरता माना है।
फिर पच्चीस योजन तक ईति आदि नहीं होना, इस प्रसंग के सात अतिशयों के स्थान पर दिगम्बर परम्परा में सुभिक्ष होना, यह केवल एक ही अतिशय माना गया है।
उपसर्ग का अभाव और समवसरण में प्राणियों की निर्वैर वृत्ति ये दोनों अतिशय दोनों परम्पराओं समान रूप से मान्य हैं।
(In the best of Kevalgyan, the coming and going of other pilgrimages described by Samwayang and later remaining unanswered, in place of these two greatness, the Digambara tradition has accepted only one greatness, omniscience.
Then there are no rituals etc. up to twenty-five schemes, instead of the seven extremes of this context, there is only one extreme in the Digambara tradition.
Absence of prefix in Samavasaran and neutral instinct of beings, both these extremes are equally valid in both the traditions.)

छाया-रहित शरीर, आकाशगमन और निर्निमेष चक्षु ये तीन अतिशय जो दिगम्बर परम्परा में मान्यहैं, श्वेताम्बर ग्रन्थ समवायांग में नहीं हैं|
इस तरह संकोच, विस्तार एवं सामान्य दृष्टिभेद को छोड़कर दोनों परम्पराओं में 34 अतिशय माने गये हैं। प्रत्येक तीर्थङ्कर इन चौंतीस अतिशयों से सम्पन्न होते हैं।

(Shadowless body, movement in the sky and fixed eyes, these three extremes which are valid in Digambara tradition, are not there in Svetambara texts Samvayang.
In this way, 34 are considered extreme in both the traditions, except for hesitation, expansion and general vision. Every Tirthankara is endowed with these thirty-four virtues.)





Comments

Popular posts from this blog

Lesson To Avoid hatred, Lord Mahavir Speech Towards Society!!!

Lesson To Avoid hatred, Lord Mahavir Speech Towards Society!!!  किसी से इतनी नफरत भी मत करो कि उसकी अच्छी बात भी बुरी लगे  किसी से इतना प्यार मत करो कि उसकी बुरी बात भी अच्छी लगे।  किसी की अच्छी बात को स्वीकार करो और उसकी बुरी बातों को इग्नोर करो । बुरी बात को देखकर आदमी को बुरा मत मानो । अगर बुरे को बुरा ही कहते रहोगे तो उसकी अच्छाई भी बुराई में बदल सकती है ।  इसलिए कहते हैं कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं ।  पुराने जमाने में घर में सीधा आटा न आकर गेहुं आते थे । घर की महिलाएं ही उस गेहूं को थाली में लेकर ध्यानपूर्वक देखकर उसमें से कंकर,तिनके, और जीव जंतु अलग करती थी और गेहूं को अलग करती थी । फिर उन गेहुओं को घर में पत्थर की चक्की में स्वयं पीसती थी । फिर उस आटे से रोटी भी स्वयं पकाती थी, क्योंकि वो रोटी उसके पति और बच्चे खाने वाले हैं । वे सब उसके अपने है ।इसलिए उनके पेट में ऐसी कोई वस्तु न जावे जो उसके आंखों से अनदेखी हो । इसलिए पुराने जमाने में लोगों का तन मन दोनों स्वस्थ रहता था ।  आज किसके घर में गेहूं आते हैं?  आते हैं क्या ?  जन आवाज- नहीं ...

चण्डकौशिक को प्रतिबोध | Bhagwan Mahaveer And Chandkosik discussion

Lord Mahaveer Journey toward Ashram where Chandkoshi Snake was present  उत्तर वाचाला की ओर बढ़ते हुए प्रभु महावीर कनखमल आश्रम पहुँचे। उस आश्रम से वाचाला पहुँचने के लिए दो मार्ग थे। एक आश्रम से होकर, और दूसरा बाहर से भगवान ने सीधा मार्ग पकड़ा। कुछ दूर जाने पर उन्हें कुछ ग्वाले मिले। उन्होंने प्रभु से कहा - भगवन्! इस पथ पर आगे एक वन है, जहाँ चण्डकौशिक नामक एक भयंकर दृष्टिविष साँप रहता है, जो पथिकों को देखकर अपने विष से भस्मसात् कर देता है। अच्छा होगा कि आप दूसरे मार्ग से आगे की ओर पधारें। भगवान ने सोचा- चण्डकौशिक भव्य प्राणी है, अतः प्रतिबोध देने से अवश्यमेव प्रतिबुद्ध होगा और वे चण्डकौशिक का उद्धार करने के लिए उसी मार्ग पर आगे बढ़ते रहे । चण्डकौशिक  Past History चण्डकौशिक सर्प अपने पूर्वजन्म में एक तपस्वी था एक बार तप के पारणे के दिन वह तपस्वी अपने शिष्य के साथ भिक्षार्थ निकला। भ्रमण करते समय मुनि के पैर के नीचे अनजाने एक मेंढ़की दब गई। यह देख शिष्य ने कहा- गुरुदेव ! आपके पैर से दबकर मेंढ़की मर गई । मुनि ने कुछ नहीं कहा। शिष्य ने सोचा कि सायंकाल प्रतिक्रमण के समय गुरुदेव इसका प...

Bhagwan Rishabhdev(भगवान ऋषभदेव) | First Thirthankar

 भगवान ऋषभदेव तीर्थङ्कर पद प्राप्ति के साधन              भगवान ऋषभदेव मानव समाज के आदि व्यवस्थापक और प्रथम धर्म नायक रहे हैं। जब तीसरे आरे के 84 लाख पूर्व, तीन वर्ष और साढ़े आठ मास अवशेष रहे' और अन्तिम कुलकर महाराज नाभि जब कुलों की व्यवस्था करने में अपने आपको असमर्थ एवं मानव कुलों की बढ़ती हुई विषमता को देखकर चिन्तित रहने लगे, तब पुण्यशाली जीवों के पुण्य प्रभाव और समय के स्वभाव से महाराज नाभि की पत्नी मरुदेवी की कुक्षि से भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ। आस्तिक दर्शनों का मन्तव्य है कि आत्मा त्रिकाल सत् है, वह अनन्त काल पहले था और भविष्य में भी रहेगा। वह पूर्व जन्म में जैसी करणी करता है, वैसे ही फल भोग प्राप्त करता है। प्रकृति का सहज नियम है कि वर्तमान की सुख समृद्धि और विकसित दशा किसी पूर्व कर्म के फलस्वरूप ही मिलती है। पौधों को फला-फूला देखकर हम उनकी बुआई और सिंचाई का भी अनुमान करते हैं। उसी प्रकार भगवान ऋषभदेव के महा-महिमामय पद के पीछे भी उनकी विशिष्ट साधनाएँ रही हुई हैं। जब साधारण पुण्य-फल की उपलब्धि के लिए भी साधना और करणी की आवश्यकता होती है, तब त्...