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मध्यमपावा में समवशरण—2 | Lord Mahavier Samavsaran in Madhyam Pava

मध्यमपावा में समवशरण—2  | Lord Mahavier Samavsaran in Madhyam Pava  

जृंभिका ग्राम से भगवान 'मध्यमपावा' पधारे। वहाँ पर आर्य सोमिल एक विराट यज्ञ का आयोजन कर रहे थे जिसमें उच्चकोटि के अनेक विद्वान् निमंत्रित थे। उधर भगवान के पधारने पर देवों ने अशोक वृक्ष आदि महाप्रतिहार्यों से प्रभु की महान् महिमा की और एक विराट समवशरण की रचना की। वहाँ देव-दानव और मानवों की विशाल सभा में भगवान उच्च सिंहासन पर विराजमान हुए और मेघ-गंभीर वाणी में उन्होंने अर्धमागधी भाषा में अपनी देशना आरम्भ की। समवशरण में आकाश मार्ग से देव-देवी आने लगे। यज्ञ-स्थल के पंडितों ने सोचा वे देव यज्ञ के लिए आ रहे हैं, पर जब वे आगे बढ़ गए तो उन्हें आश्चर्य हुआ । पण्डित इन्द्रभूति को जब मालूम हुआ कि देवगण प्रभु महावीर के समवशरण में जा रहे हैं तो वे भी भगवानमहावीर के ज्ञान की परख और उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित करने के उद्देश्य से अपने पाँच सौ छात्रों और अन्य विद्वानों के साथ वहाँ पहुँचे। समवशरण में प्रभु महावीर के तेजस्वी मुखमण्डल और महाप्रतिहार्यों को देखकर इन्द्रभूति बहुत प्रभावित हुए और प्रभु महावीर ने जब उन्हें 'इन्द्रभूति गौतम' कहकर सम्बोधित किया तो वे चकित हो गए। पर मन ही मन सोचने लगे कि मैं इन्हें सर्वज्ञ तभी समझूंगा जब ये मेरे मन के संशय का निवारण कर दें। गौतम के मनोगत भावों को समझकर प्रभु ने कहा- गौतम! तुम लम्बे समय से आत्मा के विषय में शंकाशील हो। इन्द्रभूति ने विस्मित होते हुए स्वीकार किया और कहा कि श्रुतियों में कहा गया है कि विज्ञान-घन आत्मा भूत-समुदाय से ही उत्पन्न होती है और पुन: उसी में तिरोहित हो जाती है, अतः परलोक की संज्ञा नहीं है तो फिर पृथ्वी आदि भूतों से पृथक पुरुष का अस्तित्त्व कैसे संभव हो सकता है? भगवान ने कहा-इन्द्रभूति! तुम्हारी सारी शंका अर्थभेद के कारण है। वास्तव में विज्ञानघन का अर्थ भूतसमुदायोत्पन्न चेतनापिण्ड नहीं है, बल्कि विविधज्ञान पर्यायों से है। आत्मा में हमेशा नई-नई ज्ञान-पर्याय की उत्पत्ति होती रहती है और पूर्व की ज्ञान पर्याय उसमें तिरोहित होती रहती है। उसी प्रकार भूत शब्द का अर्थ पृथ्वी आदि पंचभूत से न होकर जड़-चेतन.   रूपी समस्त ज्ञेय पदार्थ से है। जब पुरुष में उत्तरकालीन। ज्ञानपर्याय उत्पन्न होता तब पूर्वकालीन ज्ञानपर्याय सत्ताहीन हो जाता है। भगवान महावीर के तर्कपूर्ण समाधान से इन्द्रभूति का संशय नष्ट हो गया। उन्होंने अपने शिष्यों सहित प्रभु का शिष्यत्व स्वीकार किया। यही इन्द्रभूति आगे चलकर भगवान महावीर के शासन में गौतम नाम से विख्यात हुए।

Indrabhuti Gautam presence with his followers :- 

इन्द्रभूति के बाद दस अन्य पण्डितों ने भी भगवान महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की। भगवान महावीर ने उनको “उप्पनेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा” की त्रिपदी का ज्ञान दिया। इसी त्रिपदी के आधार पर इन्द्रभूति आदि विद्वानों ने द्वादशांग और दृष्टिवाद के अन्तर्गत चौदहपूर्व की रचना की और गणधर कहलाए। इन विद्वानों के कुल मिलाकर चार हजार चार सौ शिष्य भी उसी दिन दीक्षित हुए। भगवान के धर्मसंघ में चन्दनबाला प्रथम साध्वी बनी। शंख शतक आदि ने श्रावकधर्म और सुलसा आदि ने श्राविकाधर्म स्वीकार किया। इस प्रकार भगवान महावीर ने श्रुतधर्म और चारित्रधर्म की शिक्षा देकर साधु-साध्वी, श्रावक एवं श्राविका चतुर्विध तीर्थ की स्थापना की और स्वयं तीर्थंकर कहलाए। तीर्थ-स्थापना के पश्चात् भगवान 'मध्यमपावा' से पुनः राजगृही पधारे और उस वर्ष का वर्षाकाल-चातुर्मास वहीं पूरा किया।

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