Skip to main content

How to persue happy life in this ERA? Lord Mahavir explanation toward it

How to persue happy life in this ERA? Lord Mahavir explanation toward it 

एक साधक ने ज्ञानी भगवान से पूछा - "भगवन मैं दो टाइम की सामायिक, प्रतिक्रमण, त्याग और तप यह सभी करता हूं फिर भी मुझे जीवन में शांति क्यों नहीं है?" ज्ञानी भगवान ने फरमाया - "जीवन में शांति पाने के लिए तीन बातों का अवश्य ध्यान रखें - पहली स्वभाव को सुधारो, दूसरी सद्भभाव को बढ़ाओ और तीसरी समभाव में पधारो" 

कैंसर और क्रोध दोनों एक ही राशि के हैं लेकिन कैंसर जब आखिरी स्टेज पर हो तो दुश्मन भी पास आ जाते हैं और क्रोध जब आखिरी स्टेज पर हो तो बेटा भी दूर हो जाता है. हमेशा लेट गो का एटीट्यूट रखें पॉजिटिव एटीट्यूट रखें. जिस प्रकार बाजार में बोर्ड लगा होता है जिस पर रुको, देखो और चलो लिखा लगा होता है उसी प्रकार हमें भी हमारे जीवन के निर्णय सोच कर,देख कर ही लेना चाहिए. अगर हम ऐसा करते हैं तो हम प्रतिसन्नलीनता तप का लाभ लेते हैं, लोभ प्रतिसन्नलीनता का लाभ लेते हैं और इंद्रिय प्रतिसन्नलीनता का लाभ लेते हैं. 

अच्छा सोचने से, मन में शुभ विचार लाने से हमे पाँच फायदे होते हैं -

1अशुभ कर्म कटते है

2नए अशुभ कर्म नहीं बंधते है 

3नए शुभ कर्म का बंध होता है,

4 मानसिक साता वेदनिय कर्म का बंध होता है 

5 प्रसन्नता की प्राप्ति होती हैं 

संसार में चार प्रकार के दुख बताए गए हैं 

शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक और आर्थिक 

संसार के सभी जीवो को सुख चाहिए, सभी जीना चाहते है, पर आज संसार में सुख बढ़ने की अपेक्षा घटते जा रहा है , देखिए पुराने लोगों को उन्होंने कितना संघर्ष किया कितने उपसर्ग परीक्षा सहन करें , किन्तु आज दुख है ही कहां? दुखों को मनुष्य ने अपने मन से निर्मित किया है, मन में वही उत्पन्न करता है फिर सतत  चिंता करता रहता है , और सोचता है कि मुझे बहुत टेंशन है अरे भाई! टेंशन तूने खुद ही तो निर्मित किया है ,आवश्यक है हम सुख के कारणों  को घटाने की बजाए उसे बढ़ाने का प्रयास करें, तभी हमें मरण में समाधि, परलोक में सद गति और मोक्ष गति प्राप्त हो सकती है. सुख के कारण क्या है दया परोपकार तब त्याग आदि I

टेंशन  के दो कारण बताए गए हैं- मन की बात ना होने पर और अपनी बात ना सुनी जाने पर,

जीव स्वयं ही कर्म का करता और भोक्ता है, जब दुखों का निर्माण हमने स्वयं किया है तो दूसरों को अपराधी क्यों मानना.?

पाप किसी का सगा  होता  नहीं पुण्य किसी को दगा देता नहीं,

Comments

Popular posts from this blog

A Moral Duty towards our Parents/Parents in Law | Duty | माता-पिता के लिए कर्तव्य

A very well explained article for the Moral Duty towards our parents   || अपने माता-पिता के प्रति नैतिक कर्तव्य के बारे में बहुत अच्छी तरह से समझाया गया लेख ये क्या कर रही हो निशा तुम.....अपनी पत्नी निशा को कमरे में एक और चारपाई बिछाते देख मोहन ने टोकते हुए कहा ... निशा -मां के लिए बिस्तर लगा रही हूं आज से मां हमारे पास सोएगी.... मोहन-क्या ..... तुम पागल हो गई हो क्या ... यहां हमारे कमरे में ...और हमारी प्राइवेसी का क्या  ... और जब अलग से कमरा है उनके लिए तो इसकी क्या  जरूरत... निशा-जरूरत है मोहन .....जब से बाबूजी का निधन हुआ है तबसे मां का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता तुमने तो स्वयं देखा है पहले बाबूजी थे तो अलग कमरे में दोनों को एकदूसरे का सहारा था मगर अब ....मोहन बाबूजी के बाद मां बहुत अकेली हो गई है दिन में तो मैं आराध्या और आप उनका ख्याल रखने की भरपूर कोशिश करते है ताकि उनका मन लगा रहे वो अकेलापन महसूस ना करे मगर रात को अलग कमरे में अकेले ....नहीं वो अबसे यही सोएगी... मोहन-मगर अचानक ये सब ...कुछ समझ नहीं  पा रहा तुम्हारी बातों को...। निशा-मोहन हर बच्चे का ध्यान उसके माता पिता बचपन में

मध्यमपावा में समवशरण—2 | Lord Mahavier Samavsaran in Madhyam Pava

मध्यमपावा में समवशरण—2  | Lord Mahavier Samavsaran in Madhyam Pava    जृंभिका ग्राम से भगवान 'मध्यमपावा' पधारे। वहाँ पर आर्य सोमिल एक विराट यज्ञ का आयोजन कर रहे थे जिसमें उच्चकोटि के अनेक विद्वान् निमंत्रित थे। उधर भगवान के पधारने पर देवों ने अशोक वृक्ष आदि महाप्रतिहार्यों से प्रभु की महान् महिमा की और एक विराट समवशरण की रचना की। वहाँ देव-दानव और मानवों की विशाल सभा में भगवान उच्च सिंहासन पर विराजमान हुए और मेघ-गंभीर वाणी में उन्होंने अर्धमागधी भाषा में अपनी देशना आरम्भ की। समवशरण में आकाश मार्ग से देव-देवी आने लगे। यज्ञ-स्थल के पंडितों ने सोचा वे देव यज्ञ के लिए आ रहे हैं, पर जब वे आगे बढ़ गए तो उन्हें आश्चर्य हुआ । पण्डित इन्द्रभूति को जब मालूम हुआ कि देवगण प्रभु महावीर के समवशरण में जा रहे हैं तो वे भी भगवानमहावीर के ज्ञान की परख और उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित करने के उद्देश्य से अपने पाँच सौ छात्रों और अन्य विद्वानों के साथ वहाँ पहुँचे। समवशरण में प्रभु महावीर के तेजस्वी मुखमण्डल और महाप्रतिहार्यों को देखकर इन्द्रभूति बहुत प्रभावित हुए और प्रभु महावीर ने जब उन्हें 'इन

Bhagwan Rishabhdev(भगवान ऋषभदेव) | First Thirthankar

 भगवान ऋषभदेव तीर्थङ्कर पद प्राप्ति के साधन              भगवान ऋषभदेव मानव समाज के आदि व्यवस्थापक और प्रथम धर्म नायक रहे हैं। जब तीसरे आरे के 84 लाख पूर्व, तीन वर्ष और साढ़े आठ मास अवशेष रहे' और अन्तिम कुलकर महाराज नाभि जब कुलों की व्यवस्था करने में अपने आपको असमर्थ एवं मानव कुलों की बढ़ती हुई विषमता को देखकर चिन्तित रहने लगे, तब पुण्यशाली जीवों के पुण्य प्रभाव और समय के स्वभाव से महाराज नाभि की पत्नी मरुदेवी की कुक्षि से भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ। आस्तिक दर्शनों का मन्तव्य है कि आत्मा त्रिकाल सत् है, वह अनन्त काल पहले था और भविष्य में भी रहेगा। वह पूर्व जन्म में जैसी करणी करता है, वैसे ही फल भोग प्राप्त करता है। प्रकृति का सहज नियम है कि वर्तमान की सुख समृद्धि और विकसित दशा किसी पूर्व कर्म के फलस्वरूप ही मिलती है। पौधों को फला-फूला देखकर हम उनकी बुआई और सिंचाई का भी अनुमान करते हैं। उसी प्रकार भगवान ऋषभदेव के महा-महिमामय पद के पीछे भी उनकी विशिष्ट साधनाएँ रही हुई हैं। जब साधारण पुण्य-फल की उपलब्धि के लिए भी साधना और करणी की आवश्यकता होती है, तब त्रिलोक पूज्य तीर्थङ्कर पद जैसी विशिष