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Lesson To Avoid hatred, Lord Mahavir Speech Towards Society!!!

Lesson To Avoid hatred, Lord Mahavir Speech Towards Society!!!  किसी से इतनी नफरत भी मत करो कि उसकी अच्छी बात भी बुरी लगे  किसी से इतना प्यार मत करो कि उसकी बुरी बात भी अच्छी लगे।  किसी की अच्छी बात को स्वीकार करो और उसकी बुरी बातों को इग्नोर करो । बुरी बात को देखकर आदमी को बुरा मत मानो । अगर बुरे को बुरा ही कहते रहोगे तो उसकी अच्छाई भी बुराई में बदल सकती है ।  इसलिए कहते हैं कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं ।  पुराने जमाने में घर में सीधा आटा न आकर गेहुं आते थे । घर की महिलाएं ही उस गेहूं को थाली में लेकर ध्यानपूर्वक देखकर उसमें से कंकर,तिनके, और जीव जंतु अलग करती थी और गेहूं को अलग करती थी । फिर उन गेहुओं को घर में पत्थर की चक्की में स्वयं पीसती थी । फिर उस आटे से रोटी भी स्वयं पकाती थी, क्योंकि वो रोटी उसके पति और बच्चे खाने वाले हैं । वे सब उसके अपने है ।इसलिए उनके पेट में ऐसी कोई वस्तु न जावे जो उसके आंखों से अनदेखी हो । इसलिए पुराने जमाने में लोगों का तन मन दोनों स्वस्थ रहता था ।  आज किसके घर में गेहूं आते हैं?  आते हैं क्या ?  जन आवाज- नहीं ।  सीधा आटा आता है ।  अब जरा सोचिए वो आ

How to persue happy life in this ERA? Lord Mahavir explanation toward it

How to persue happy life in this ERA? Lord Mahavir explanation toward it  एक साधक ने ज्ञानी भगवान से पूछा - "भगवन मैं दो टाइम की सामायिक, प्रतिक्रमण, त्याग और तप यह सभी करता हूं फिर भी मुझे जीवन में शांति क्यों नहीं है?" ज्ञानी भगवान ने फरमाया - "जीवन में शांति पाने के लिए तीन बातों का अवश्य ध्यान रखें - पहली स्वभाव को सुधारो, दूसरी सद्भभाव को बढ़ाओ और तीसरी समभाव में पधारो"  कैंसर और क्रोध दोनों एक ही राशि के हैं लेकिन कैंसर जब आखिरी स्टेज पर हो तो दुश्मन भी पास आ जाते हैं और क्रोध जब आखिरी स्टेज पर हो तो बेटा भी दूर हो जाता है. हमेशा लेट गो का एटीट्यूट रखें पॉजिटिव एटीट्यूट रखें. जिस प्रकार बाजार में बोर्ड लगा होता है जिस पर रुको, देखो और चलो लिखा लगा होता है उसी प्रकार हमें भी हमारे जीवन के निर्णय सोच कर,देख कर ही लेना चाहिए. अगर हम ऐसा करते हैं तो हम प्रतिसन्नलीनता तप का लाभ लेते हैं, लोभ प्रतिसन्नलीनता का लाभ लेते हैं और इंद्रिय प्रतिसन्नलीनता का लाभ लेते हैं.  अच्छा सोचने से, मन में शुभ विचार लाने से हमे पाँच फायदे होते हैं - 1अशुभ कर्म कटते है 2नए अशुभ कर्म न

मध्यमपावा में समवशरण—2 | Lord Mahavier Samavsaran in Madhyam Pava

मध्यमपावा में समवशरण—2  | Lord Mahavier Samavsaran in Madhyam Pava    जृंभिका ग्राम से भगवान 'मध्यमपावा' पधारे। वहाँ पर आर्य सोमिल एक विराट यज्ञ का आयोजन कर रहे थे जिसमें उच्चकोटि के अनेक विद्वान् निमंत्रित थे। उधर भगवान के पधारने पर देवों ने अशोक वृक्ष आदि महाप्रतिहार्यों से प्रभु की महान् महिमा की और एक विराट समवशरण की रचना की। वहाँ देव-दानव और मानवों की विशाल सभा में भगवान उच्च सिंहासन पर विराजमान हुए और मेघ-गंभीर वाणी में उन्होंने अर्धमागधी भाषा में अपनी देशना आरम्भ की। समवशरण में आकाश मार्ग से देव-देवी आने लगे। यज्ञ-स्थल के पंडितों ने सोचा वे देव यज्ञ के लिए आ रहे हैं, पर जब वे आगे बढ़ गए तो उन्हें आश्चर्य हुआ । पण्डित इन्द्रभूति को जब मालूम हुआ कि देवगण प्रभु महावीर के समवशरण में जा रहे हैं तो वे भी भगवानमहावीर के ज्ञान की परख और उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित करने के उद्देश्य से अपने पाँच सौ छात्रों और अन्य विद्वानों के साथ वहाँ पहुँचे। समवशरण में प्रभु महावीर के तेजस्वी मुखमण्डल और महाप्रतिहार्यों को देखकर इन्द्रभूति बहुत प्रभावित हुए और प्रभु महावीर ने जब उन्हें 'इन

प्रभु महावीर को कैवल्य-प्राप्ति—1 | Lord Mahavier kevalgyan Knowlege Part 1

प्रभु महावीर को कैवल्य-प्राप्ति—1 | Lord Mahavier kevalgyan Knowlege Part 1   प्रभु के दीक्षा लेने के पश्चात् तेरहवें वर्ष के मध्य में वैशाख शुक्ला दशमी को दिन के पिछले प्रहर में नृभिका ग्राम के बाहर, ऋजुबालुका नदी के किनारे, जीर्णउद्यान में शालवृक्ष के नीचे प्रभु आतापना ले रहे थे। उस समय छट्टभक्त की निर्जल तपस्या से उन्होंने क्षपकश्रेणी का आरोहण कर, शुक्लध्यान के द्वितीय चरण में मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक चार घातिकर्मों का क्षय किया और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के योग में केवलज्ञान एवं केवलदर्शन की उपलब्धि की। भगवान भाव अर्हन्त कहलाए तथा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन गए। भगवान महावीर को केवलज्ञान प्राप्त होते ही देवगण पंचदिव्यों की वृष्टि करते हुए ज्ञान की महिमा करने आए। देवताओं ने सुन्दर और विराट समवशरण की रचना की। यह जानते हुए कि वहाँ संयमव्रत ग्रहण करने वाला कोई नहीं है, भगवान ने कल्प समझकर कुछ काल तक उपदेश दिया। मनुष्यों की उपस्थिति नहीं होने से प्रभु महावीर की प्रथम देशना में किसी ने व्रत-नियम ग्रहण नहीं किया। परम्परा के अनुसार तीर्थंकर का उपदेश व्यर्थ नहीं जाता, इस दृष्

Life Learning Lesson, Worship actual meaning for human beings | जीवन का पाठ सीखना, मनुष्य के लिए वास्तविक अर्थ की पूजा करना

जीवन का पाठ सीखना, मनुष्य के लिए वास्तविक अर्थ की पूजा करना :-   इच्छाओ का घटना,(कम) लाइफ़ की सफलता है! जब तक स्वयं के स्वार्थ की निवृत्ति नहीं होती, तब तक दूसरों को सुख देने की प्रवृत्ति नहीं आ सकती है! जो धर्म मेरे आत्मिक शांति और गुणों की वृद्धि करता है, वही सच्चा मोक्ष मार्ग है! करना-करना, जीवन भर, मानो दौड़ में रेस के घोड़े की तरह व्यतीत किया है, हकीकत में तो छोडना ही  ला आफ नेचर है! भले स्वयं के सुखों को छोड़ देना, परन्तु परिवार को दु:खी  नहीं करना चाहिए! माता पिता से कन्फर्ट लेने की आदत ही जिंदगी को फैल्यर बना देती है परंतु माता पिता का गाइडेंस लेकर जिंदगी जीने वाले अपनी लाइफ़ को सक्सीस बना लेते हैं! विनम्रता को आत्म विकास का प्रवेश द्वार माना जाता है। सभी सत्गुणों की पात्रता का कर्ता  विनम्रता ही है।  धर्म की पहचान विनम्रता से होती है।  धर्म का आत्मा में ठहराव सरलता गुण से ही होता है। बिना सरलता आत्मा में शुद्ध धर्म  प्रवेश नहीं करता है, और ठहराव तो हो ही नहीं सकता है। पत्थर पर फूल नहीं खिलते,काली मिट्टी में ही फूल अच्छे खिलते हैं, ठीक वैसे ही धर्म भी  बिना सरलता से आत्मा में स

A Moral Duty towards our Parents/Parents in Law | Duty | माता-पिता के लिए कर्तव्य

A very well explained article for the Moral Duty towards our parents   || अपने माता-पिता के प्रति नैतिक कर्तव्य के बारे में बहुत अच्छी तरह से समझाया गया लेख ये क्या कर रही हो निशा तुम.....अपनी पत्नी निशा को कमरे में एक और चारपाई बिछाते देख मोहन ने टोकते हुए कहा ... निशा -मां के लिए बिस्तर लगा रही हूं आज से मां हमारे पास सोएगी.... मोहन-क्या ..... तुम पागल हो गई हो क्या ... यहां हमारे कमरे में ...और हमारी प्राइवेसी का क्या  ... और जब अलग से कमरा है उनके लिए तो इसकी क्या  जरूरत... निशा-जरूरत है मोहन .....जब से बाबूजी का निधन हुआ है तबसे मां का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता तुमने तो स्वयं देखा है पहले बाबूजी थे तो अलग कमरे में दोनों को एकदूसरे का सहारा था मगर अब ....मोहन बाबूजी के बाद मां बहुत अकेली हो गई है दिन में तो मैं आराध्या और आप उनका ख्याल रखने की भरपूर कोशिश करते है ताकि उनका मन लगा रहे वो अकेलापन महसूस ना करे मगर रात को अलग कमरे में अकेले ....नहीं वो अबसे यही सोएगी... मोहन-मगर अचानक ये सब ...कुछ समझ नहीं  पा रहा तुम्हारी बातों को...। निशा-मोहन हर बच्चे का ध्यान उसके माता पिता बचपन में

Lord Mahavira Chaturmas Khahani | परम निस्पृह | भगवान महावीर चातुर्मास खहानी

Lord Mahavira Chaturmas  Khahani |  भगवान महावीर चातुर्मास खहानी कोल्लाग सन्निवेश से प्रस्थान कर भगवान मोराक सन्निवेश पधारे। वहाँ के आश्रम का कुलपति महाराज सिद्धार्थ का मित्र था । उसने महावीर का स्वागत किया और वहाँ ठहरने की प्रार्थना करने लगा। महावीर ने वहाँ एक रात का निवास किया और दूसरे दिन प्रस्थान के लिए उद्यत हुए तो कुलपति ने उनसे वहाँ चातुर्मास काल में ठहरने का अनुरोध किया। भगवान कुछ समय तक आस-पास के गाँवों में घूमकर पुन: वर्षावास के लिए उसी आश्रम में आ गये और एक कुटी में रहने लगे। महावीर के हृदय में प्राणिमात्र के लिए दया और मैत्री भावना थी। अकाल के प्रभाव से घास आदि के अभाव में गाएँ आश्रम की कुटियों तक आकर कुटी का तृण चरने लगतीं । अन्य परिव्राजक तो उन्हें भगा देते, पर महावीर निस्पृहभाव से ध्यान में खड़े रहते। उनके मन में न तो आश्रम व कुलपति के प्रति राग था, न गायों के प्रति द्वेष। वे इन बातों से विरक्त दिन-रात ध्यान में निमग्न रहते। कुछ तापसों ने कुलपति से महावीर के इस आचरण की शिकायत की। कुलपति ने महावीर को मधुर उपालंभ देते हुए कहा - कुमार, आप निरन्तर ध्यानमग्न रहते हैं, यह बड़ी

निमित्तज्ञ द्वारा स्वप्नफल - कथन | Lord Parasnath philosophy turning point via Lord Mahaveer

 उस गाँव में उत्पल नामक एक निमित्तज्ञ रहता था । वह पहले पार्श्वनाथ की परम्परा का श्रमण था, किन्तु किसी कारण से वह श्रमण-जीवन छोड़ चुका था । उसने जब भगवान महावीर के यक्षायतन में ठहरने की बात सुनी तो अनिष्ट की आशंका से उसका हृदय हिल उठा । प्रात:काल वह पुजारी के साथ यक्षायतन पहुँचा। वहाँ पर उसने भगवान को ध्यानावस्थ खड़े देखा तो बड़ा प्रसन्न हुआ। रात के स्वप्नों के फल के सम्बन्ध में उसने प्रभु से निम्न विचार व्यक्त किये:- 1. पिशाच को मारने का अर्थ है कि आप मोहकर्म का अन्त करेंगे। 2. श्वेत कोकिल देखने का तात्पर्य यह है कि आपको शुक्लध्यान प्राप्त होगा । 3. विचित्र रंग के कोकिल देखने का तात्पर्य यह है कि आप विविध ज्ञानों से पूर्ण श्रुत की देशना करेंगे। 4. देदीप्यमान दो रत्नमालाओं का तात्पर्य निमित्तज्ञ नहीं बता सका। 5. सफेद गौवर्ग का तात्पर्य यह है कि आप चतुर्विधसंघ की स्थापना करेंगे। 6. विकसित पद्म सरोवर का तात्पर्य है कि चार प्रकार के देव आपकी सेवा करेंगे। 7. समुद्र को तैर कर पार करने का तात्पर्य है कि आप संसार- सागर को पार करेंगे। 8. उदीयमान सूर्य से विश्व में आलोक का तात्पर्य है कि आप केव

चण्डकौशिक को प्रतिबोध | Bhagwan Mahaveer And Chandkosik discussion

Lord Mahaveer Journey toward Ashram where Chandkoshi Snake was present  उत्तर वाचाला की ओर बढ़ते हुए प्रभु महावीर कनखमल आश्रम पहुँचे। उस आश्रम से वाचाला पहुँचने के लिए दो मार्ग थे। एक आश्रम से होकर, और दूसरा बाहर से भगवान ने सीधा मार्ग पकड़ा। कुछ दूर जाने पर उन्हें कुछ ग्वाले मिले। उन्होंने प्रभु से कहा - भगवन्! इस पथ पर आगे एक वन है, जहाँ चण्डकौशिक नामक एक भयंकर दृष्टिविष साँप रहता है, जो पथिकों को देखकर अपने विष से भस्मसात् कर देता है। अच्छा होगा कि आप दूसरे मार्ग से आगे की ओर पधारें। भगवान ने सोचा- चण्डकौशिक भव्य प्राणी है, अतः प्रतिबोध देने से अवश्यमेव प्रतिबुद्ध होगा और वे चण्डकौशिक का उद्धार करने के लिए उसी मार्ग पर आगे बढ़ते रहे । चण्डकौशिक  Past History चण्डकौशिक सर्प अपने पूर्वजन्म में एक तपस्वी था एक बार तप के पारणे के दिन वह तपस्वी अपने शिष्य के साथ भिक्षार्थ निकला। भ्रमण करते समय मुनि के पैर के नीचे अनजाने एक मेंढ़की दब गई। यह देख शिष्य ने कहा- गुरुदेव ! आपके पैर से दबकर मेंढ़की मर गई । मुनि ने कुछ नहीं कहा। शिष्य ने सोचा कि सायंकाल प्रतिक्रमण के समय गुरुदेव इसका प्रायश्चित

Bhagwan Mahaveer गोशालक का आगमन | Mahaveer swami aur goshalak ki kahani (जैन कहानी)

Bhagwan Mahaveer and Goshalak ki kahani विहार करते हुए भगवान राजगृह पहुँचे और वहाँ नालन्दा की एक तन्तुवाय - शाला में वर्षावास हेतु विराजे । भगवान के प्रथम मास - तप का पारणा विजय सेठ के यहाँ हुआ। उस समय आकाश में देवदुंदुभि हुई और पंच- दिव्य प्रकट हुए। भाव-विशुद्धि से विजय सेठ ने संसार परिमित किया और देवलोक का भव पाया।  मंखलिपुत्र गोशालक भी उस समय वहीं वर्षावास कर रहा था। गोशालक ने भगवान के तप की महिमा देखी तो उनके पास गया। भगवान ने वर्षावास के समय मास-मास का दीर्घ स्वीकार कर रखा था। कार्तिक पूर्णिमा के दिन भिक्षा के लिए प्रस्थान करते समय गोशालक ने भगवान से पूछा- भगवन्! मुझे आज भिक्षा में क्या मिलेगा? सिद्धार्थ देव ने कहा- 'कोदो का बासी भात, खट्टी छाछ और खोटा रूपया ।' भगवान की भविष्यवाणी को गलत प्रमाणित करने के लिए गोशालक भिक्षा के लिए ऊँचे-ऊँचे गाथापतियों के यहाँ गया, पर उसे वहाँ भिक्षा नहीं मिली । अन्त में एक लुहार के यहाँ उसको खट्टी छाछ, बासी भात और दक्षिणा में एक रूपया मिला जो बाजार में नहीं चला। गोशालक के मन पर इस घटना का यह प्रभाव पड़ा कि वह नियतिवाद का भक्त बन गया। चातुर

Aadinath(RishabhDev | भगवान ऋषभ) God Samavasran | आदि प्रभु का समवसरण

 केवलज्ञान द्वारा ज्ञान की पूर्ण ज्योति पा लेने के पश्चात् भगवान ने जहाँ प्रथम देशना दी, उस स्थान और उपदेश-श्रवणार्थ उपस्थित जन समुदाय देव-देवी, नर-नारी, तिर्यञ्च समुदाय को समवसरण कहते हैं। (After attaining the full light of knowledge through Kevalgyan, the place where God gave the first sermon and the community of God-Goddess, male-female, Tiryancha community present for listening to the sermon is called Samavasaran.) 'समवसरण' पद की व्याख्या करते हुए आचार्यों ने कहा है-“सम्यग् एकीभावेन अवसरणमेकत्र गमनं-मेलापकः समवसरणम्।' अर्थात्-अच्छी तरह एक स्थान पर मिलना अथवा साधु-साध्वी आदि संघ का एकत्र मिलना एवं व्याख्यान सभा समवसरण कहलाते हैं । (Explaining the term 'Samvasaran', the Acharyas have said - "Samyag Ekibhaven Avasaranamektra Gamanam-Melapak: Samavasaranam." Means- well meeting at one place or meeting of Sadhu-Sadhvi etc. Sangh together and lecture meeting is called Samavasaran.) 'भगवती सूत्र' में क्रियावादी, अक्रियावादी अज्ञानवादी, विनयवादी, रूपवा

Tirthankara's speech 35 qualities | तीर्थंकर की वाणी 35 गुण

35 qualities of Tirthankara's speech | Tirthankar Khand  समवसरण में तीर्थङ्कर भगवान की मेघ सी वाणी पैंतीस अतिशयों के साथ अविरलरूप से प्रवाहित होती है। वे पैंतीस अतिशय इस प्रकार हैं:- (In Samavasaran, the cloud-like speech of the Tirthankara God flows incessantly with thirty-five superlatives. Those thirty-five extremes are as follows:-) लक्षणयुक्त हो, उच्च स्वभाव युक्त हो, मर्मवेधी न हो, धर्मार्थ रूप पुरुषार्थ की पुष्टि करने वाली हो, ग्रामीणता यानी हल्के शब्दादि से रहित हो,  अभिधेय अर्थ की गम्भीरता वाली हो, मेघ जैसी गम्भीर हो, अनुनाद अर्थात् प्रतिध्वनियुक्त हो वक्रता- दोष-रहित सरल हो, मालकोशादि राग-सहित हो अर्थ-गम्भीर हो पूर्वापर विरोधरहित हो, आत्म-प्रशंसा व पर-निन्दा रहित हो श्लाघनीय हो. कारक, काल, वचन और लिंग आदि के दोषों से रहित हो श्रोताओं के मन में आश्चर्य पैदा करने वाली हो, अद्भुत अर्थ-रचना वाली हो, शिष्टतासूचक हो, सन्देहरहित हो पर-दोषों को प्रकट न करने वाली हो, विलम्ब रहित हो, विभ्रमादि दोषरहित हो श्रोताओं के हृदय को आनन्द देने वाली हो बड़ी विचक्षणता से देश काल के अनुस

Svetambara and Digambara traditions (Thirthankar way of tradition) Rishabhdev Part 2

 श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के अतिशयों में संख्या समान होने पर भी निम्नलिखित अन्तर है: श्वेताम्बर ग्रन्थ समवायांग में तीर्थङ्करों के आहार-नीहार को चर्मचक्षु द्वारा अदृश्य-प्रच्छन्न माना इसके स्थान पर दिगम्बर परम्परा में स्थूल आहार का अभाव और नीहार नहीं होना, इस तरह दाना अला अतिशय मान्य किये हैं। ( There is the following difference between the extremes of the Svetambara and Digambara tradition, even though the number is the same: In the Svetambara book Samvayang, the diet of the Tirthankaras is considered to be invisible-disguised by the skin eye ). समवायाँग के छठे अतिशय से ग्यारहवें तक अर्थात् आकाशगत चक्र से अशोक चक्र तक के न दिगम्बर परम्परा में नहीं हैं। इनके स्थान पर निर्मल दिशा, स्वच्छ आकाश, चरण के नीचे स्वर्ण-कमल आकाश में जयजयकार, जीवों के लिए आनन्ददायक, आकाश में धर्मचक्र का चलना व अष्ट मंगल, ये 7 अतिशय माने गये हैं। (From the sixth Atishaya to the eleventh of the Samvayang, i.e. from the Akashagat Chakra to the Ashoka Chakra, there are no Digambaras in the tradition. In place o

भगवान श्री पार्श्वनाथ | Lord Parasnath History

 History of भगवान श्री पार्श्वनाथ   After Lord Arishtanemi (Neminath), the twenty-third Tirthankara became Shri Parshvanath. Your time is 9th-10th century BC. You were born two hundred and fifty years before Lord Mahavir. On the basis of historical research, the scholars of today's historical subject have started considering Lord Parshwanath as a historical man. Major General Furlong has written after historical research - "In that period, in the whole of North India, there was such a very systematic, philosophical, virtuous and ascetic religion, that is, Jainism, from the very foundation of which Brahmin and Buddhist religions were sannyas." Developed later. Even before the Aryans reached the banks of the Ganges and Saraswati, about twenty-two prominent saints or Tirthankaras had preached to the Jains, after whom the Parsvas came and had the knowledge of all their former Tirthankaras or holy sages who big time. Renowned Western scholars like Dr. Hermann Jacobi also consi

Rishabhdev Lord Thirthankar

 How Rishabhdev got the thirthankar name ? Lord Rishabhdev has been the original administrator and first religious hero of human society. When 84 lakhs, three years and eight and a half months remained before the third saw, and when the last Kulkar Maharaj Nabhi felt himself unable to organize the clans and began to worry about the growing disparity of human clans, then the meritorious effects of virtuous beings And by the nature of time Lord Rishabhdev was born from the womb of Marudevi, the wife of Maharaj Navel. Theistic philosophies hold that the soul is a Trikal Sat, it was eternally before and will remain so in the future. As he does in the previous birth, he gets the fruits of enjoyment. It is an innate law of nature that the present happiness, prosperity and developed condition is achieved only as a result of some past karma. Seeing the plants flourishing, we also estimate their sowing and irrigation. Similarly, behind the great-glorious post of Lord Rishabhdev, there have been

Bhagwan Rishabhdev(भगवान ऋषभदेव) | First Thirthankar

 भगवान ऋषभदेव तीर्थङ्कर पद प्राप्ति के साधन              भगवान ऋषभदेव मानव समाज के आदि व्यवस्थापक और प्रथम धर्म नायक रहे हैं। जब तीसरे आरे के 84 लाख पूर्व, तीन वर्ष और साढ़े आठ मास अवशेष रहे' और अन्तिम कुलकर महाराज नाभि जब कुलों की व्यवस्था करने में अपने आपको असमर्थ एवं मानव कुलों की बढ़ती हुई विषमता को देखकर चिन्तित रहने लगे, तब पुण्यशाली जीवों के पुण्य प्रभाव और समय के स्वभाव से महाराज नाभि की पत्नी मरुदेवी की कुक्षि से भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ। आस्तिक दर्शनों का मन्तव्य है कि आत्मा त्रिकाल सत् है, वह अनन्त काल पहले था और भविष्य में भी रहेगा। वह पूर्व जन्म में जैसी करणी करता है, वैसे ही फल भोग प्राप्त करता है। प्रकृति का सहज नियम है कि वर्तमान की सुख समृद्धि और विकसित दशा किसी पूर्व कर्म के फलस्वरूप ही मिलती है। पौधों को फला-फूला देखकर हम उनकी बुआई और सिंचाई का भी अनुमान करते हैं। उसी प्रकार भगवान ऋषभदेव के महा-महिमामय पद के पीछे भी उनकी विशिष्ट साधनाएँ रही हुई हैं। जब साधारण पुण्य-फल की उपलब्धि के लिए भी साधना और करणी की आवश्यकता होती है, तब त्रिलोक पूज्य तीर्थङ्कर पद जैसी विशिष